Saturday, 14 October 2017

अहमद जान थिरकवा

अहमद जान थिरकवा  


अहमद जान थिरकवा (अंग्रेज़ीAhmed Jan Thirakwa, जन्म: 1891उत्तर प्रदेश - मृत्यु: 13 जनवरी1976भारत के प्रसिद्ध तबला वादकों में गिने जाते थे। लखनऊमेरठ और फ़र्रूख़ाबाद आदि कई घरानों का इन्हें बाज याद था। थिरकवा जी विशेष रूप से दिल्ली और फ़र्रूख़ाबाद का बाज बजाने में निपुण थे।

जीवन परिचय

अहमद जान थिरकवा का जन्म 1891 में मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके नाना बाबा कलंदर बख़्श और उनके भाई इलाही बख़्श (नाटोरी वाले), बोली बख़्श, करीम बख़्श सभी मुरादाबाद के प्रसिद्ध तबला वादकों में शामिल थे। अहमद जान थिरकवा के चाचा शेर ख़ाँ, मामा फ़ैयाज ख़ाँ, बसवा ख़ाँ और फ़जली ख़ाँ प्रसिद्ध तबला नवाज थे।

नामकरण

पटियाला के स्वर्गीय उस्ताद अब्दुल अजीज ख़ाँ कहा करते थे कि अहमद जान जब छोटी उम्र से ही तबला सीखा करते थे, तो उनका हाथ तबले पर एक विचित्र प्रकार से थिरकता था। इसीलिए उनका नाम 'थिरकवा' पड़ गया। ऐसा भी कहा जाता है कि अपने छात्र जीवन में नटखट होने के कारण यह नाम 'थिरकवा' उस्ताद मुनीर ख़ाँ के पिता उस्ताद काले ख़ाँ द्वारा दिया गया।

शिक्षा

थिरकवा ने मेरठ के रहने वाले उस्ताद मुनीर ख़ाँ से तबला बजाने की विधा सीखी थी। मुनीर ख़ाँ ताल विद्या के उत्कुष्ट विद्धान हो गए थे। इनको सैकडों बोल और परनें याद थीं। यद्यपि थिरकवा के घर में भी तबले का प्रबन्ध था, क्योंकि आपके चाचा उस्ताद शेर ख़ाँ एक नामी तबलिए हो गए थे, किन्तु तबले की नियमित शिक्षा के लिए आपको उस्ताद मुनीर ख़ाँ के पास ही जाना पड़ा।

निपुणता

तबला वादन में थिरकवा ने अपनी मेहनत एवं लगन से बहुत शीघ्र ही निपुणता प्राप्त कर ली थी। लखनऊमेरठ, अजराड़ा, फ़र्रूख़ाबाद आदि सभी घरानों का बाज थिरकवा को याद था, किन्तु विशेष रूप से वे दिल्ली और फ़र्रूख़ाबाद का बाज बजाने में वे सिद्ध हस्त थे। तबला बजाते समय जिन संगीत प्रेमियों ने उस्ताद थिरकवा के मुँह के बोल सुने थे, उन्हें ज्ञात था कि जितना सुन्दर वे बजाते थे, उतने ही सुन्दर और स्पष्ट बोल उनके मुख से निकलते थे। कठिन तालें भी वे बड़ी सुगमता से बजाते थे।

पुरस्कार व सम्मान

सन 1953-1954 में थिरकवा को 'राष्ट्रपति पुरस्कार' मिला था। इसके बाद सन 1970 में भारत सरकार द्वारा उन्हें 'पद्मभूषण' उपाधि देकर सम्मानित किया गया।

निधन

अहमद जान थिरकवा काफ़ी समय तक रामपुर दरबार में रहे। बाद में लखनऊ आकर बस गए। यहीं पर 13 जनवरी1976 को उनका इन्तकाल हो गया

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